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रोज़ा इंसान को भूखों-प्यासों की तकलीफ का एहसास कराता है: मुफ्ती नश्तर फारुकी

रोज़ा इंसान को भूखों-प्यासों की तकलीफ का एहसास कराता है: मुफ्ती नश्तर फारुकी


बरेली।
इस्लाम में रोज़ा सिर्फ इबादत का नाम नहीं, बल्कि भूखों और प्यासों की तकलीफों का एहसास करने और जरूरतमंदों की मदद का जज़्बा जगाने का ज़रिया भी है। मरकज़े अहले सुन्नत बरेली शरीफ स्थित मरकज़ी दारुल इफ्ता के वरिष्ठ मुफ्ती अब्दुर्रहीम नश्तर फारुकी ने कहा कि जब इंसान खुद भूख और प्यास की शिद्दत सहता है, तभी उसे समाज के गरीब तबके की परेशानियों का सच्चा एहसास होता है। यह एहसास ही उसे ज़रूरतमंदों की मदद और उनसे हमदर्दी करने के लिए प्रेरित करता है।

रोज़ा से मिटता है अमीरी-गरीबी का भेद

मुफ्ती नश्तर फारुकी ने कहा कि रोज़े की हालत में हर इंसान को समान रूप से भूख और प्यास लगती है, चाहे वह अमीर हो या गरीब। सभी मुसलमान एक साथ सहरी और इफ्तार करते हैं, जिससे सामाजिक भेदभाव मिटता है और इंसानियत का जज़्बा बढ़ता है। रोज़ा इंसान को यह सिखाता है कि जब हमें कुछ घंटों की भूख और प्यास इतनी कठिन लगती है, तो उन लोगों का क्या हाल होगा जो कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहते हैं?

रोज़ा जरूरतमंदों की मदद का सबक देता है

मुफ्ती फारुकी ने कहा कि रोज़ा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज के कमजोर और असहाय लोगों के लिए संवेदनशीलता बढ़ाने का एक माध्यम भी है। अमीर लोग जब खुद रोज़े की कठिनाई को महसूस करते हैं, तो वे अल्लाह का शुक्र अदा करने के साथ-साथ गरीबों की मदद करने के लिए आगे आते हैं। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस्लाम में ज़कात का नियम बनाया गया है, ताकि समाज के गरीब लोग भी ईद की खुशियों में शामिल हो सकें।

रोज़ा इबादत के साथ समाज सुधार का ज़रिया

मुफ्ती नश्तर फारुकी ने कहा कि रोज़ा केवल आत्मसंयम और अल्लाह की इबादत का जरिया ही नहीं, बल्कि इंसानियत, बराबरी और मदद का सबक भी सिखाता है। यह हमारे अंदर गरीबों के लिए दया, प्रेम और सहयोग की भावना पैदा करता है, जिससे समाज में इंसाफ और भलाई का माहौल बनता है।


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