किताबों की बढ़ती कीमतें: शिक्षा या व्यापार? बदलता सिर्फ कवर, लेकिन अभिभावकों की जेब पर भारी बोझ
बरेली। नया शैक्षणिक सत्र शुरू होते ही किताबों की आसमान छूती कीमतों ने एक बार फिर अभिभावकों की परेशानी बढ़ा दी है। निजी स्कूलों और पुस्तक विक्रेताओं की मनमानी के कारण किताबों के दामों में 10 से 20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो गई है। शिक्षा विभाग के सख्त निर्देशों के बावजूद इस पर कोई नियंत्रण नहीं दिख रहा, जिससे अभिभावकों में रोष बढ़ता जा रहा है।
हर साल की तरह इस बार भी कई निजी स्कूलों ने अपनी किताबों की सूची जारी कर दी है, जिसमें केवल कुछ चुनिंदा दुकानों से ही इन्हें खरीदने का निर्देश दिया गया है। इससे अभिभावकों को अधिक कीमतों पर किताबें लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं मिलता। चौंकाने वाली बात यह है कि इन किताबों में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया, केवल कवर पेज बदल दिया गया या मामूली संशोधन किए गए हैं, जिससे पुरानी किताबें अनुपयोगी हो जाती हैं।
बढ़ती कीमतों का गणित, अभिभावकों का फूटा गुस्सा
बच्चों की शिक्षा को लेकर चिंतित अभिभावकों का कहना है कि यह अब एक संगठित व्यापार का रूप ले चुका है।
आकांक्षा सिंह, एक अभिभावक, कहती हैं, "हर साल किताबों की कीमतें बढ़ा दी जाती हैं। सरकार को इस पर सख्त नियम बनाकर नियंत्रण करना चाहिए।"
मनीषा शर्मा, एक अन्य अभिभावक, ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, "जब तक निजी स्कूलों में एनसीईआरटी किताबें अनिवार्य नहीं होंगी, तब तक यह लूट जारी रहेगी।"
रवि वर्मा, एक सरकारी कर्मचारी, बोले, "स्कूलों और प्रकाशकों की मिलीभगत से हर साल अभिभावकों की जेब पर भारी बोझ पड़ता है। सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है।"
कौन है जिम्मेदार?
सरकार ने स्कूल बैग का बोझ कम करने और एनसीईआरटी की किताबें लागू करने के निर्देश दिए हैं, लेकिन निजी स्कूल इन नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। शिक्षा विभाग और प्रशासन की निष्क्रियता के कारण किताब विक्रेता भी मनमानी कीमत वसूल रहे हैं।
क्या हो सकता है समाधान?
सरकार को सख्त नियम लागू करने होंगे, ताकि कोई भी स्कूल निजी प्रकाशकों की किताबें अनिवार्य न कर सके।
एनसीईआरटी की किताबें सभी स्कूलों में अनिवार्य की जाएं, जिससे शिक्षा प्रणाली समान हो सके। पुरानी किताबों के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाए, ताकि अभिभावकों का आर्थिक बोझ कम हो। ऑनलाइन पोर्टल या हेल्पलाइन बनाई जाए, जहां किताबों की अधिक कीमतों की शिकायत दर्ज कराई जा सके। स्थानीय प्रशासन और शिक्षा विभाग को सक्रिय भूमिका निभानी होगी, ताकि स्कूलों और विक्रेताओं की मिलीभगत रोकी जा सके।
आखिर कब तक चलेगी यह लूट?
बच्चों की शिक्षा एक अधिकार है, न कि व्यापार का साधन। सरकार, शिक्षा विभाग और प्रशासन को इस गंभीर मुद्दे पर ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि अभिभावकों को हर साल इस आर्थिक बोझ से छुटकारा मिल सके। जब तक सरकार इस मुद्दे को प्राथमिकता से नहीं देखेगी, तब तक निजी स्कूलों और प्रकाशकों की मनमानी जारी रहेगी और अभिभावक ठगे जाते रहेंगे।
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